सुधीर कुमार सोनी
srishtiekkalpna.blogspot,in
Monday, 10 August 2015
Saturday, 26 October 2013
'' कुछ सवाल ''
मेरी
कुछ गलतियाँ थी
सवाल मैंने सोच रखे थे
और
सामना होने पर भी
पूंछ नहीं पाया
पूंछना था
दिये से
क्या तुम्हें जानते हो
तुम्हारे अपने तले में अँधेरा है
जवाब -नामालूम
आसमान से
क्या तुम जानते हो
मात्र शून्य है तुम्हारा अस्तित्व
हवा से
क्या तुम जानते हो
तुम्हारा अपना कोई घर नहीं
आग से
क्या तुम जानते हो
तुम किसी के
कृपापात्र नहीं हो सकते
फिर स्वयं से
क्या तुम जानते हो
कि तुम इन्सान हो
आदमी /व्यक्ति हो
और फिर भी
आदमी की परिधी से
बाहर निकलने की कोशिश करते हो
और नकार दिये जाते हो
कभी पीठ पीछे
कभी मुँह पर
जवाब
मेरे बस में था
पर सब की तरफ से
मैं मौन था
कुछ गलतियाँ थी
सवाल मैंने सोच रखे थे
और
सामना होने पर भी
पूंछ नहीं पाया
पूंछना था
दिये से
क्या तुम्हें जानते हो
तुम्हारे अपने तले में अँधेरा है
जवाब -नामालूम
आसमान से
क्या तुम जानते हो
मात्र शून्य है तुम्हारा अस्तित्व
हवा से
क्या तुम जानते हो
तुम्हारा अपना कोई घर नहीं
आग से
क्या तुम जानते हो
तुम किसी के
कृपापात्र नहीं हो सकते
फिर स्वयं से
क्या तुम जानते हो
कि तुम इन्सान हो
आदमी /व्यक्ति हो
और फिर भी
आदमी की परिधी से
बाहर निकलने की कोशिश करते हो
और नकार दिये जाते हो
कभी पीठ पीछे
कभी मुँह पर
जवाब
मेरे बस में था
पर सब की तरफ से
मैं मौन था
Friday, 25 October 2013
'' अब शेष है ''
अब शेष है
कुछ अकल्पनीय बातें
अब खींची रह जायेंगी
धरती में लकीरें ही लकीरें
देश/प्रदेश/खेत
/बाग़-बगीचे /मकान /झोपड़ी
सभी का अस्तित्व तय करेंगीं लकीरें
किताबों ने न जाने कब की बातें लिखीं हैं
की बाघ और बकरी
एक घाट में पानी पीते थे
अब मानवीय रिश्तों में पल रही हैं दरारें
अब किसी की माँ की व्याकुलता पर
बेटे की इच्छा मात्र से
नदी अपना मार्ग नहीं बदलेगी
जब नदी के ऊफान से
धरती डूब जाती है
तब कौन बीड़ा उठाएगा
सागर को पीने का
जब कथनी और करनी में
बहुत ज्यादा अन्तर हो
तब किसी का मुख
सूर्य को नहीं छिपा सकता
अब मेरी सोंच में भी
यह बात आ सकती है
की अंधे माँ -बाप को
अकारण काँधे में लादकर
क्यों तीर्थ स्थानों का पूण्य भोगने दूँ
कुछ अकल्पनीय बातें
अब खींची रह जायेंगी
धरती में लकीरें ही लकीरें
देश/प्रदेश/खेत
/बाग़-बगीचे /मकान /झोपड़ी
सभी का अस्तित्व तय करेंगीं लकीरें
किताबों ने न जाने कब की बातें लिखीं हैं
की बाघ और बकरी
एक घाट में पानी पीते थे
अब मानवीय रिश्तों में पल रही हैं दरारें
अब किसी की माँ की व्याकुलता पर
बेटे की इच्छा मात्र से
नदी अपना मार्ग नहीं बदलेगी
जब नदी के ऊफान से
धरती डूब जाती है
तब कौन बीड़ा उठाएगा
सागर को पीने का
जब कथनी और करनी में
बहुत ज्यादा अन्तर हो
तब किसी का मुख
सूर्य को नहीं छिपा सकता
अब मेरी सोंच में भी
यह बात आ सकती है
की अंधे माँ -बाप को
अकारण काँधे में लादकर
क्यों तीर्थ स्थानों का पूण्य भोगने दूँ
Sunday, 20 October 2013
'' जंगल ''
कितना अँधेरा
कितनी चुप्पी बटोरे हुए हो
जंगल तुम
बिलकुल मेरे स्वप्न की तरह
वह भी
इतनी चुप्पी बिखेर जाता है
मेरी नींद में
झींगुरों का संगीत स्वर भी
ठीक मेरे स्वप्न की भाँति हैं
पर इस समय
जंगल मैं तुम्हारी सीमा में हूँ
या तुम मेरे स्वप्न में
कितनी चुप्पी बटोरे हुए हो
जंगल तुम
बिलकुल मेरे स्वप्न की तरह
वह भी
इतनी चुप्पी बिखेर जाता है
मेरी नींद में
झींगुरों का संगीत स्वर भी
ठीक मेरे स्वप्न की भाँति हैं
पर इस समय
जंगल मैं तुम्हारी सीमा में हूँ
या तुम मेरे स्वप्न में
Wednesday, 16 October 2013
'' नाम ''
तुम्हारा
हँसना/मुस्कुराना/रूठना
संजना/संवारना
बारिश में भीग-भीग जाना
तुम जानती हो
तुम्हारी दिनचर्या के इन पलों में
कितने शब्द उभर आते हैं
तुम्हारी देह में
तुम्हारे
इन पलों से
कितने शब्द चुराकर
मैंने लिखी है
जाने कितनी कवितायेँ
असमंजस में हूँ
रचयिता में
किसका नाम लिखूँ
मेरा
या तुम्हारा
हँसना/मुस्कुराना/रूठना
संजना/संवारना
बारिश में भीग-भीग जाना
तुम जानती हो
तुम्हारी दिनचर्या के इन पलों में
कितने शब्द उभर आते हैं
तुम्हारी देह में
तुम्हारे
इन पलों से
कितने शब्द चुराकर
मैंने लिखी है
जाने कितनी कवितायेँ
असमंजस में हूँ
रचयिता में
किसका नाम लिखूँ
मेरा
या तुम्हारा
'' रोटी ''
आटे की लोई का
तवे पर
तुम्हारी ऊँगलियों के पोरों से
घुमाकर
रोटी का बन जाना
जैसे
पृथ्वी के एक सिरे में
सुबह हुई हो अभी-अभी
तवे पर
तुम्हारी ऊँगलियों के पोरों से
घुमाकर
रोटी का बन जाना
जैसे
पृथ्वी के एक सिरे में
सुबह हुई हो अभी-अभी
Thursday, 19 September 2013
'' बातें ''
बातों की बनावट में
कहीं भी पहिया जैसी चीज नहीं है
फिर भी बातें
घुमा-फिराकर की जाती हैं
मीलों दूर
किसी से बात करने का जिम्मा
हमने कागज की चिठ्ठी-पत्री पर डाला है
आँखें जब आँखों से बात करती हैं
तब होंठों को
बंद करना पड़ता है अपनी आँखे
बातें कभी-कभी
शहद सी मीठी हो जाया करती हैं
बातें
बरसों बाद खुलती हैं
किसी पुरानी पोटली के गठान की तरह
अपने बड़ों की बातें
परदेश में
खींचलेते हैं कदम
अँधेरे से उजाले की ओर
कहीं भी पहिया जैसी चीज नहीं है
फिर भी बातें
घुमा-फिराकर की जाती हैं
मीलों दूर
किसी से बात करने का जिम्मा
हमने कागज की चिठ्ठी-पत्री पर डाला है
आँखें जब आँखों से बात करती हैं
तब होंठों को
बंद करना पड़ता है अपनी आँखे
बातें कभी-कभी
शहद सी मीठी हो जाया करती हैं
बातें
बरसों बाद खुलती हैं
किसी पुरानी पोटली के गठान की तरह
अपने बड़ों की बातें
परदेश में
खींचलेते हैं कदम
अँधेरे से उजाले की ओर
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