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Saturday 26 October 2013

'' कुछ सवाल ''

मेरी
कुछ गलतियाँ थी
सवाल मैंने सोच रखे थे
और
सामना होने पर भी
पूंछ नहीं पाया

पूंछना था
दिये से
क्या तुम्हें जानते हो
तुम्हारे अपने तले में अँधेरा है
जवाब -नामालूम

आसमान से
क्या तुम जानते हो
मात्र शून्य है तुम्हारा अस्तित्व

हवा से
क्या तुम जानते हो
तुम्हारा अपना कोई घर नहीं

आग से
क्या तुम जानते हो
तुम किसी के
कृपापात्र नहीं हो सकते

फिर स्वयं से
क्या तुम जानते हो
कि तुम इन्सान हो
आदमी /व्यक्ति हो
और फिर भी
आदमी की परिधी से
बाहर निकलने की कोशिश करते हो
और नकार दिये जाते हो
कभी पीठ पीछे
कभी मुँह पर
जवाब
मेरे बस में था
पर सब की तरफ से
मैं मौन था

Friday 25 October 2013

'' अब शेष है ''

अब शेष है
कुछ अकल्पनीय बातें
अब खींची रह जायेंगी
धरती में लकीरें ही लकीरें
देश/प्रदेश/खेत
/बाग़-बगीचे /मकान /झोपड़ी
सभी का अस्तित्व तय करेंगीं लकीरें

किताबों ने न जाने कब की बातें लिखीं हैं
की बाघ और बकरी
एक घाट में पानी पीते थे
अब मानवीय रिश्तों में पल रही हैं दरारें

अब किसी की माँ की व्याकुलता पर
बेटे की इच्छा मात्र से
नदी अपना मार्ग नहीं बदलेगी

जब नदी के ऊफान से
धरती डूब जाती है
तब कौन बीड़ा उठाएगा
सागर को पीने का

जब कथनी और करनी में
बहुत ज्यादा अन्तर हो
तब किसी का मुख
सूर्य को नहीं छिपा सकता

अब मेरी सोंच में भी
यह बात आ सकती है
की अंधे माँ -बाप को
अकारण काँधे में लादकर
क्यों तीर्थ स्थानों का पूण्य भोगने दूँ

Sunday 20 October 2013

'' जंगल ''

कितना अँधेरा
कितनी चुप्पी बटोरे हुए हो
जंगल तुम
बिलकुल मेरे स्वप्न की तरह
वह भी
इतनी चुप्पी बिखेर जाता है
मेरी नींद में
झींगुरों का संगीत स्वर भी
ठीक मेरे स्वप्न की भाँति हैं
पर इस समय
जंगल मैं तुम्हारी सीमा में हूँ
या तुम मेरे स्वप्न में

Wednesday 16 October 2013

'' नाम ''

तुम्हारा
हँसना/मुस्कुराना/रूठना
संजना/संवारना
बारिश में भीग-भीग जाना
तुम जानती हो
तुम्हारी दिनचर्या के इन पलों में
कितने शब्द उभर आते हैं
तुम्हारी देह में
तुम्हारे
इन पलों से
कितने शब्द चुराकर
मैंने लिखी है
जाने कितनी कवितायेँ
असमंजस में हूँ
रचयिता में
किसका नाम लिखूँ
मेरा
या तुम्हारा 

'' रोटी ''

आटे की लोई का
तवे पर
तुम्हारी ऊँगलियों के पोरों से
घुमाकर
रोटी का बन जाना
जैसे
पृथ्वी के एक सिरे में
सुबह हुई हो अभी-अभी 

Thursday 19 September 2013

'' बातें ''

बातों की बनावट में
कहीं भी पहिया जैसी चीज नहीं है
फिर भी बातें
घुमा-फिराकर की जाती हैं

मीलों दूर
किसी से बात करने का जिम्मा
हमने कागज की चिठ्ठी-पत्री पर डाला है

आँखें जब आँखों से बात करती हैं
तब होंठों को
बंद करना पड़ता है अपनी आँखे

बातें कभी-कभी
शहद सी मीठी हो जाया करती हैं

बातें
बरसों बाद खुलती हैं
किसी पुरानी पोटली के गठान की तरह

अपने बड़ों की बातें
परदेश में
खींचलेते हैं कदम
अँधेरे से उजाले की ओर

Monday 16 September 2013

किसे रोक रहें हैं हम

[मित्र राजेश गनोदवाले के लेख से प्रेरित ]
मैं लौटता हूँ
अपने देश के ओर
अपनी धरती में
जिसे मैं छोड़ आया हूँ अभी-अभी
वह भी धरती ही है
उस धरती में भी
फसलें लहलहाती हैं
उस धरती की मिट्टी में भी
अपनी उपस्थिति दर्ज कराते
वर्षों से खड़े हैं वृक्ष
मैं विचारों में गुम हुआ
स्वयं को साथ लेकर
रेलगाड़ी के डिब्बे में लौटता हूँ
अमृतसर की ओर बढ़ती है गाड़ी
यात्रिओं के चेहरे बदले से नजर आते हैं
मानों इसी पल की प्रतीक्षा थी
कितना करीब है
लाहौर से अमृतसर
धरती एक होकर भी
हम एक नहीं
आकाश एक होकर भी
हम एक नहीं
सीमा को रेखांकित करते
ये कटीले तार नहीं जानते
कि बांटने को खड़े हैं
कटीले तारों के दोनों तरफ
अलहदा कुछ भी नहीं
एक से खेत
एक सी फसल
एक सा जल
एक सी गंध
एक सी इबादत
और प्रकृति ने दिया
जो कुछ
वह एक सा
फिर यह भारी भरकम
फाटक क्यों
किसे रोक रहें हैं हम
क्या हम ठण्डी हवाओं को रोक पायेंगें
रोक पायेंगे बारिशों को
क्या धूप की तपिश को रोक पायेंगें
क्या हम उन पछियों को रोक पायेंगे
जो दोनों देशों में चह्चहाते हैं
जो दिलों में
एक दूसरे से बंधें हैं
उनके लिए कोई कानून
काम कर पायेगा
एक पल को
पंछी होने को होता है मन
तब फिर
हमारे लिए किसी वाघा का महत्व होगा
न अटारी का
फुर्र से उड़े तो उधर
फुर्र से उड़े तो इधर 

Friday 5 April 2013

'' पेड़ ''

मैंने
कागज पर लकीरें खींची
डाल बनायी
पत्ते बनाये
अब कागज पर
चित्र -लिखित सा पेड़ खड़ा है
पेड़ ने कहा
'यह मैं हूँ
मुझ पर काले अक्षरों की दुनिया रचकर
किसे बदलना चाहते हो '

मैंने
रंगों से कपड़े में
कुछ लकीरें खींची
डाल बनायीं
पत्ते बनाए
अब
कपड़े पर छपा पेड़ है
पेड़ ने कहा
'यह मैं हूँ
मुझे नंगा कर
किसे ढंकना चाहते हो

'यह जो तुम हो
पेड़ ने कहा
यह भी मैं हूँ
साँसों पर रोक लगाकर
किसे जीवित रखना चाहते हो '

Tuesday 2 April 2013

''आग''

आदिम युग से
तमाम कोशिशों के बाद
दो पत्थरों की रगड़ में
आग को कैद कर लिया आदमी ने

कभी
स्वयं होकर
जंगल जलाया
और आग ने बताया
कि उसमें कितनी भयावहता है

पृथ्वी के गर्भ की आग
जब करवट लेते-लेते थक जाती
तो
कमजोर जमीन को ध्वस्त कर
निकल पड़ती
पानी के फव्वारों की मानिंद
और धधकती रहती
बेमुद्दत

समुद्र के अंदर की आग
यह
आश्चर्यजनक है
मगर पानी में आग है
और उसकी पहुँच
अब हमारे घर तक है

आदमी ने समाज रचा
उसे गति दी
तो बहुत सी आग ऐसी थी
जो दिखती नहीं थी
ईष्या की आग
बदले की आग
वासना की आग
क्रोध की आग

आग के लिए
सबसे जरुरी था
चूल्हे में रोज जलना
पेट की आग बुझाने के लिए
आग को बुझाने के लिए
आग का जलना
बड़ी अजीब सी बात है
आग का ख़त्म न होने का सिलसिला
चूल्हे की आग
सबकी सबसे ज्यादा जरुरत है
जिनके घर नहीं
वे भी किसी कोने में चूल्हा जला
अपनी खिचड़ी पका लेते हैं
पेट की आग बुझा लेते हैं

मैं हतप्रध सा
तब रह गया
जब एक बेघर ने कहा
''बाबूजी
रोज शमशान की चिता की बची-खुची आग में
पतीले में चांवल पका लेता हूँ
अपनी भूख मिटा लेता हूँ ''

Sunday 31 March 2013

'' थोड़े से लोग ''

बहुत थोड़े से लोग हैं
जो चीजों को कसकर
पकड़ते हैं
मैं पकड़ नहीं पाया
दिन को पकड़ने की कोशिश में
दिन निकल गया
सुबह-सुबह आँख लगी थी कि
दिन निकल गया
चिड़ियों ने घोसलें बनाने
शुरू ही किये थे
कि दिन निकल गया

Thursday 28 March 2013

''अँधेरे /उजाले

दिन रात के
अँधेरे- उजाले
और जीवन के अँधेरे -उजाले में
कोई समानता नहीं
तय नहीं
कि अँधेरे के बाद उजाला आयेगा
जीवन में रात का अँधेरा होना ही
अँधेरे का होना नहीं होता
जीवन के उजाले
और
रात के अँधेरे साथ-साथ हो सकते हैं
साथ-साथ हो सकते हैं
जीवन के अँधेरे और दिन के उजाले
काश
जीवन में उजाला ही होता
क्योंकि रात का अँधेरा तो तय ही है

माँ

                 ''माँ''

माँ
तुम्हें अपनी रचना में
स्थान दे रहा हूँ
मुझे मालूम है
तुम्हारा अपने गर्भ में
मुझे स्थान देने जैसा पूण्य कार्य
मेरे लिए सम्भव नहीं

माँ
मैं नहीं जानता
कि तुम्हारी परिभाषा
मेरे हाथों लिखी जाए
क्योंकि मै तुम्हारे साथ-साथ
धरती माँ
और तमाम जीव-जन्तुओं की
जननी का अपराधी कहलाऊंगा
क्योंकि माँ को
गिने-चुने शब्दों में
नहीं बाँधा जा सकता

माँ
तुम्हारा कार्य भी 
प्रचारित करने जैसा नहीं
भीतर तक महसूसने
और स्वीकारने जैसा है

माँ
प्रसव के बाद
तुम गीली देह लिए
मौसमों से जूझती हो
आधी-अधूरी नींद में भी
तुम्हारे `हाथ वहीँ जाते हैं
जहाँ कोमल नन्हीं देह होती है

माँ तुम्हारे सीने में
अदभुत जलधारा प्रवाहित है
जो बच्चे का रक्त संचारित करती है
करती है मस्तिष्क का निमार्ण
फिर सागर की गहराई
और ब्रम्हाण्ड के सारे ग्रह-नक्षत्र से
सीधे संवाद करता है आदमी

जहाँ से आरम्भ होती है
बच्चे की किलकारी
और जहाँ होता है अंतिम पड़ाव
दोनों ही देह
माँ की होती है
'' सृष्टि एक कल्पना ''


हम सभी अचम्भित हैं
की इस नीले आसमान के ऊपर क्या होगा
किस पर टिकी है यह धरती
हलचल है कब से इन समुन्दरों मैं
सब कुछ बंद किताब सा है
वह  बंद किवाड़ है
जो फिर न खुल सकेगा

सोचता हूँ
कब पहली बार लाल सुबह
पँख फड़फड़ाती धरती पर उतरी होगी

कैसा लगा होगा धरती को
जब पहली बार
उसने धूप को ओढ़ा होगा

कब पहली बार
हवा के किताब के पहले पन्ने खुले होंगें
और धरती के पोर-पोर मैं
गुनगुनायी होगी हवा

कब पहली बार
आकाश से मोतियों की तरह
नन्हीं -नन्ही बूंदे गिरी होंगी

कैसा लगा होगा
किसी नन्हें पौधे को
मिट्टी के भीतर से  ऊगना पहली बार

आँख भर आई होगी धूप की
जब पहली बार अगले दिन के लिए
शाम की लालिमा के साथ वह  लौटी होगी

कब पहली बार
मानव की रचना कर
पृथ्वी  पर उतारा गया होगा

कब पहली बार
किसी कन्या ने गर्भ धारण किया होगा
और कहलाई होगी माँ

कब पहली बार
आदमी का मौत से हुआ होगा
साक्षात्कार
जो उसकी सोच मैं भी नहीं था

कब पहली बार
अस्तित्व मैं आई होगी लकीरें
और आदमी के माथे की परेशानियां बनी होगी

कब पहली बार
लकीरें उठ खड़ी हुई होंगी
और आदमी ने धरती को बाँटा होगा
जिसका बाँटा जाना बंद होने केअब सारे बंद हैं