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Monday, 16 September 2013

किसे रोक रहें हैं हम

[मित्र राजेश गनोदवाले के लेख से प्रेरित ]
मैं लौटता हूँ
अपने देश के ओर
अपनी धरती में
जिसे मैं छोड़ आया हूँ अभी-अभी
वह भी धरती ही है
उस धरती में भी
फसलें लहलहाती हैं
उस धरती की मिट्टी में भी
अपनी उपस्थिति दर्ज कराते
वर्षों से खड़े हैं वृक्ष
मैं विचारों में गुम हुआ
स्वयं को साथ लेकर
रेलगाड़ी के डिब्बे में लौटता हूँ
अमृतसर की ओर बढ़ती है गाड़ी
यात्रिओं के चेहरे बदले से नजर आते हैं
मानों इसी पल की प्रतीक्षा थी
कितना करीब है
लाहौर से अमृतसर
धरती एक होकर भी
हम एक नहीं
आकाश एक होकर भी
हम एक नहीं
सीमा को रेखांकित करते
ये कटीले तार नहीं जानते
कि बांटने को खड़े हैं
कटीले तारों के दोनों तरफ
अलहदा कुछ भी नहीं
एक से खेत
एक सी फसल
एक सा जल
एक सी गंध
एक सी इबादत
और प्रकृति ने दिया
जो कुछ
वह एक सा
फिर यह भारी भरकम
फाटक क्यों
किसे रोक रहें हैं हम
क्या हम ठण्डी हवाओं को रोक पायेंगें
रोक पायेंगे बारिशों को
क्या धूप की तपिश को रोक पायेंगें
क्या हम उन पछियों को रोक पायेंगे
जो दोनों देशों में चह्चहाते हैं
जो दिलों में
एक दूसरे से बंधें हैं
उनके लिए कोई कानून
काम कर पायेगा
एक पल को
पंछी होने को होता है मन
तब फिर
हमारे लिए किसी वाघा का महत्व होगा
न अटारी का
फुर्र से उड़े तो उधर
फुर्र से उड़े तो इधर 

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