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Thursday 28 March 2013

माँ

                 ''माँ''

माँ
तुम्हें अपनी रचना में
स्थान दे रहा हूँ
मुझे मालूम है
तुम्हारा अपने गर्भ में
मुझे स्थान देने जैसा पूण्य कार्य
मेरे लिए सम्भव नहीं

माँ
मैं नहीं जानता
कि तुम्हारी परिभाषा
मेरे हाथों लिखी जाए
क्योंकि मै तुम्हारे साथ-साथ
धरती माँ
और तमाम जीव-जन्तुओं की
जननी का अपराधी कहलाऊंगा
क्योंकि माँ को
गिने-चुने शब्दों में
नहीं बाँधा जा सकता

माँ
तुम्हारा कार्य भी 
प्रचारित करने जैसा नहीं
भीतर तक महसूसने
और स्वीकारने जैसा है

माँ
प्रसव के बाद
तुम गीली देह लिए
मौसमों से जूझती हो
आधी-अधूरी नींद में भी
तुम्हारे `हाथ वहीँ जाते हैं
जहाँ कोमल नन्हीं देह होती है

माँ तुम्हारे सीने में
अदभुत जलधारा प्रवाहित है
जो बच्चे का रक्त संचारित करती है
करती है मस्तिष्क का निमार्ण
फिर सागर की गहराई
और ब्रम्हाण्ड के सारे ग्रह-नक्षत्र से
सीधे संवाद करता है आदमी

जहाँ से आरम्भ होती है
बच्चे की किलकारी
और जहाँ होता है अंतिम पड़ाव
दोनों ही देह
माँ की होती है

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